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लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण घटक -डिस्कशन, डिबेट और डाइसेंट के बिना - लोकतंत्र प्रणाली प्रभावशाली कैसे ?

September 26, 2020 09:16 AM
डॉ कमलेश कली 

संसद का मानसून सत्र अपने तय समय से आठ दिन पूर्व खत्म कर दिया गया है, कारण कोविड 19 का बढ़ता संक्रमण और विपक्षी हंगामा बताया जा रहा है। हैरानी की बात यह है इतने कम समय में संसद ने वो सब कर लिया है जो पूरे सैशन में भी नहीं हो पाता। इस दौरान सरकार ने 25 विधेयक पास किए, जिनमें से विवादास्पद तीन बिल किसानों से और तीन लेबर कोड बिल औधोगिक मजदूरों के हितों से जुड़े हैं। इस सत्र में 20 नये बिल प्रस्तुत किये गये थे, जिनमें से 17  बिना चर्चा के पास कर दिये गये। संसद की कमेटियों के पास एक भी बिल नहीं भेजा गया। राज्य सभा में केवल चार घंटे में सात बिल पास कर दिये गये। प्रश्न काल को पहले ही खत्म कर दिया गया था। सरकार है कि अब की बार के संसद के काम की सराहना कर रही है कि जितना काम इस बार हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ।पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के हवाले से बताया गया है कि लोकसभा में   इन दिनों 50% ज्यादा काम हुआ ,आधी  आधी रात तक कार्रवाई चलती रही, उनके अनुसार लोकसभा की उत्पादकता में 167% वृद्धि हुई और राज्य सभा की कार्य उत्पादकता में 100% वृद्धि हुई।
लेकिन ये सब प्रजातांत्रिक व्यवस्था के मूल भूत सिद्धांत को दरकिनार करते हुए किया गया। डेमोक्रेटिक व्यवस्था में तीन डी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं - डिस्कशन, डिबेट और डाइसेंट अर्थात चर्चा, विवाद और असहमति इनके बिना कहा जाता है अंग्रेजी की कहावत है डेमोक्रेसी  बिकम्स डेमोनक्रेसी अर्थात प्रजातंत्र राक्षस तंत्र बन जाता है

किसानों से जुड़े बिलों पर ना केवल विपक्ष अपितु सरकार से टकराव में किसान सड़क पर उतरे हुए है, सरकार संशोधन के लिए एक छोटी सी शर्त जो कि विपक्ष ने रखी है कि जो प्रधानमंत्री मौखिक रूप से कह रहे हैं कि किसानों को       एमएसपी मिलती रहेगी, उसे कानूनी मान्यता क्यों नहीं दी जा सकती? सरकार एक लाइन बिलों में जोड़ सकती है कि जिन 23 कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, उससे कम मूल्य पर बिक्री नहीं होगी, इससे किसानों की आंशका भी मिट जाएगी और विपक्ष जो हंगामा कर रहा है, इस मुद्दे पर जो राजनीतिक बवाल उठा है, उसे शांत कर सकती हैं। सरकार ने मजदूरों से जुड़े लेबर कोड पर भी बिना बहस करवाएं और सहमति बनाएं पास कर दिया है। राहुल गांधी ने इसे "गरीबों का शोषण- मित्रों का पोषण"बताया है, कांग्रेस पहले भी सरकार को सूट बूट की सरकार अर्थात औधोगिक घरानों और कारपोरेट जगत की हिमायती बताती रही है।
जो भी हो संसद का मुख्य कार्य कानून बनाने के साथ साथ कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करना भी होता है। इस समय सरकार में एक ही पार्टी की मेजोरिटी है, तो यह कार्य और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। सर्वसम्मति बनाना तो दूर की बात है, जनता द्वारा चुने गए सांसदों को अपना विचार व्यक्त करने,बहस करने और विरोध जताने का अवसर भी नहीं मिला। इस पर लोमड़ी और खट्टे अंगूर वाली कहानी याद आ गई है। लोमड़ी की पहुंच से अंगूर बाहर थे तो उसने अपने मन को दिलासा दिया कि अंगूर खट्टे हैं खा कर क्या करेंगी। पर अब इस कहानी का आधुनिक संस्करण आया है जिसके अनुसार लोमड़ी खूब मेहनत करती है,जिम में व्यायाम करके, ऊंची छलांग लगाने के लिए अभ्यास करती है। फलस्वरूप उसके हाथ अंगूरों तक पहुंच जाते हैं। पर अंगूर खाने में वास्तव में ही खट्टे थे, अब लोमड़ी खट्टे अंगूरों को सबको मीठे अंगूर बताती है। अनुभव से नहीं अपितु अपने लक्ष्य से यथार्थ का चित्रण करती है।किसान और मजदूर मिला कर 90% लोगों के हित में सरकार जो कुछ कर रही है, बढ़िया कर रही है,अगर वो कह रही है कि अंगूर मीठे है तो मीठे ही मान लेना चाहिए, सार्वजनिक चर्चा, विचार विमर्श और खुली बहस सरकार को मान्य नहीं है

 
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