प्रेम, एक ऐसा भाव है, जो प्रेमियों के अतिरिक्त कलाकारों, दार्शनिकों और साहित्यकारों के लिए रुचिकर और चिंतन का विषय रहा है। इस पर न जाने कितनी कविताएं, कहानियां, उपन्यास लिखे गए हैं और फिल्में बनी हैं। फिल्मों का तो प्रेम बहुत ही लोकलुभावन विषय रहा है। फिल्मी गीतों में प्रेम का जितना महिमा-मंडन किया गया है, उतना कहीं और नहीं हुआ है। गानों में प्रेम की गहराई और आवेग को बखान करने के लिए उसके साथ न जाने कितने विशेषण जोड़ दिए गए हैं, जैसे- इश्कवाला लव, पाक मोहब्बत, घनघोर प्यार, पवित्र प्रेम.. और भी न जाने क्या-क्या! इन्हें सुनकर मन में एक सवाल उठता है कि क्या एक शब्द ‘प्रेम’ अपने मूल भाव को साबित करने के लिए काफी नहीं? क्यों इसकी तीव्रता साबित करने के लिए हमें ‘ऐसे वाला-वैसे वाला’ जोड़ने की जरूरत आन पड़ती है? इस क्यों को समझने के लिए पहले प्रेम के भाव को समझने की जरूरत है।सही अर्थों में प्रेम एक ऐसा भाव है, जो अपने आप में पूर्ण है। उसे न बढ़ाया जा सकता है, न कम किया जा सकता है। उसके एक ही मायने हैं, एक ही परिभाषा है। लेकिन हमने अपनी-अपनी समझ के अनुसार प्रेम को अलग-अलग नाम दे दिए। जैसे ईश्वर से किया गया प्रेम-भक्ति। किसी भी दूसरे इंसान से किया गया अपेक्षा रहित, स्वार्थ रहित प्यार-मोहब्बत और वासना-कुछ प्राप्ति की कामना से रहित प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम को ‘प्लेटोनिक लव’ कहा गया है। ‘गिव-एंड-टेक’ की पॉलिसी पर बेस्ड प्रेम ‘कंडीशनल लव’ कहलाता है। वैसे इस आधुनिक दौर में अधिकांशतः रिश्ते ऐसे ही कंडीशनल या शर्तों वाले प्रेम की हिलती बुनियाद पर टिके होते हैं। उनमें अपेक्षाओं और स्वार्थों की भरपूर मिलावट होती है, ‘तुम मुझे प्रेम दोगे तो मैं भी तुम्हें प्रेम दूंगा। तुम मेरी बात मानोगे तो ही मैं तुम्हारी बात सुनूंगा...’ जैसे भाव रहते हैं।प्रेम अपने वास्तविक रूप में शुद्ध, नि:स्वार्थ, बेशर्त, पूर्ण और समर्पित होता है। प्रेम आनंद का एक अविरल बहता स्रोत है, जिसमें डूबकर खो जाने का मन करता है। लेकिन क्यों...? कारण, प्रेम आपके अहंकार को पिघलाकर शून्य करता है। अहंकार, जो आपको किसी के सामने झुकने नहीं देता, जो दूसरे से ज्यादा खुद को और खुद की चाहतों को महत्व देता है। जिस पल भी हमारा अहंकार शून्य होता है, हमें अच्छा लगता है और हम आनंदित होते हैं। इसीलिए एक छोटे बच्चे को गोद में लेने में, उसकी हरकतें देखने में बड़ा आनंद मिलता है, क्योंकि हमारी उस छोटे बच्चे से कोई अपेक्षा नहीं होती, न ही उसके सामने खुद को बड़ा और सही साबित करने की चाह होती है।लोग अकसर कहते हैं कि वे अपना पहला प्यार नहीं भूल पाते। पहला प्यार इसलिए नहीं भुलाया जा सकता, क्योंकि उसमें पहली बार हमारा अहंकार झुकता है, समर्पित होता है। इंसान को यह आनंद समर्पित होने की वजह से मिला लेकिन उसे लगा कि यह उसके प्रेमी या प्रेमिका के कारण हुआ। उस आनंद की अवस्था को वह ‘सच्चे प्रेम’ का नाम दे देता है। आगे चलकर उस रिश्ते में जब भी अपेक्षाएं शुरू होती हैं तो अहंकार उठ खड़ा होता है और आनंद चला जाता है। यह उसके अपने कारण से होता है लेकिन शिकायत सामने वाले से की जाती है, ‘तुम बदल गए हो, पहले जैसे नहीं रहे.. मुझे पहले की तरह प्यार नहीं करते।’फिर इंसान दूसरी रिलेशनशिप में जाकर उसी आनंद को खोजता है लेकिन वह उसे नहीं मिलता, क्योंकि इस रिश्ते में तो पहले से ही एक अपेक्षा साथ आई होती है, ‘मुझे पहले प्यार जैसा अच्छा महसूस हो...।’ जहां अपेक्षा, वहां अहंकार और जहां अहंकार वहां स्थाई आनंद कैसे मिल सकता है? अपेक्षा पूरी न होने पर उसे लगता है, ‘शायद इस बार चयन गलत हो गया।’ फिर वह कहीं और प्रेम को खोजने लगता है। अंततः उसकी ‘सच्चे प्यार’ की खोज एक समझौते पर जाकर समाप्त होती है। यही कारण है कि लोग पहले प्यार को ‘सच्चा प्यार’ और उसके बाद वाले संबंधों को समझौतों का नाम दे देते हैं। इसलिए वे रिश्ते में रहते यह समझ लें कि गलती उनके अपने भीतर हो रही है, बाहर नहीं... फिर शायद कोई रिश्ता न टूटे।‘प्रेम’ के शुद्ध, नि:स्वार्थ, बेशर्त समर्पित भाव को संसार में विकृत कर दिया गया है, इसलिए प्रेम को उसके विकृत रूप से अलग दिखाने के लिए उसके अलग-अलग नाम जैसे भक्ति, ममता, मोहब्बत आदि रखने पड़ जाते हैं। नाम कुछ भी हो और किसी भी रिश्ते के बीच हो, ‘प्रेम’ प्रेम ही रहता है। प्रेम के वास्तविक स्वरूप यानि अहंकार शून्य की अवस्था को समझते हुए अब यदि कभी आपको ऐसा लगे कि किसी इंसान के सामने आप झुककर भी खुश हैं तो समझें कि आप उस इंसान के प्रेम में हैं, चाहे उससे आपका जो भी रिश्ता हो। और उसे ‘ऐसे वाला वैसे वाला’ प्रेम कहने की जरूरत नहीं, सिर्फ प्रेम ही कहेंगे, तो काफी है।
विकेश शर्मा