नेपाल में हाल ही में लगाए गए सोशल मीडिया बैन ने नई पीढ़ी को बुरी तरह झकझोर दिया है। शॉर्ट वीडियो कंटेंट से 'किक' पाने वाली 'डाउनलोड' जनरेशन, जो 10 सेकंड के रील्स में खो जाती है, अब सड़कों पर उतर आई है। 4 सितंबर 2025 को सरकार द्वारा 26 प्लेटफॉर्म्स—जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और यूट्यूब—पर लगाए गए बैन के खिलाफ 'जन जेड' प्रोटेस्ट में कम से कम 19-22 युवाओं की मौत हो चुकी है। यह बैन भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का ट्रिगर बना, लेकिन युवाओं की डिजिटल दुनिया से अचानक कटौती ने उन्हें हताश कर दिया। कम उम्र के बच्चे, जो लाइक्स और कमेंट्स की भूख में अपनी जान जोखिम में डालकर खतरनाक रील्स बनाते हैं, अब इस 'डिजिटल डिटॉक्स' को सहन नहीं कर पा रहे।
ऑस्ट्रेलिया इस दिशा में एक सख्त उदाहरण पेश कर रहा है। 2025 में लागू होने वाले कानून के तहत, 16 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया अकाउंट बनाने की मनाही है। 10 दिसंबर 2025 से शुरू होकर, प्लेटफॉर्म्स को उम्र सत्यापन के लिए 'उचित कदम' उठाने होंगे, जिसमें तकनीकी सॉल्यूशंस जैसे बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन शामिल हो सकते हैं।
फिर भी, यह कदम युवाओं की मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए एक मजबूत लीगल फ्रेमवर्क साबित हो रहा है।
भारत में स्थिति और जटिल है। सस्ते 2जीबी डेटा पैक के लालच में प्लेटफॉर्म्स कुछ भी परोस रहे हैं—हेट स्पीच से लेकर फेक न्यूज तक। हाल के वर्षों में सोशल मीडिया ने दंगों को भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है; 2020 में अकेले 857 कम्युनल रायट्स दर्ज हुए, जिनमें फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स का योगदान प्रमुख रहा।अब सरकार ने निगरानी कड़ी कर दी है, लेकिन पर्याप्त नहीं। डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (DPDP) एक्ट, 2023 के ड्राफ्ट रूल्स (जनवरी 2025) के अनुसार, 18 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया अकाउंट खोलने के लिए पैरेंटल कंसेंट अनिवार्य है।
प्लेटफॉर्म्स को वेरिफायबल कंसेंट लेना होगा, अन्यथा जुर्माना। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2025 में 13 साल से कम बच्चों पर पूर्ण बैन की मांग वाली PIL को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि यह पॉलिसी मैटर है।
भारत को ऑस्ट्रेलिया जैसा मिनिमम एज लिमिट (जैसे 16 साल) अपनाना चाहिए, साथ ही एडमिन रोल के तहत पैरेंट्स को कंटेंट मॉनिटरिंग टूल्स प्रदान करने का प्रावधान जोड़ना चाहिए। समाज को भी आत्म-मूल्यांकन करना होगा: हम अर्थी को लाइव स्ट्रीम या रील बना रहे हैं, जो भावनात्मक कमजोरी को बढ़ावा दे रहा है।
इस एडिक्शन के परिणाम भयावह हैं। दुनिया भर में आत्महत्या के मामलों में तेजी आई है, जो फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसी प्लेटफॉर्म्स की लत से जुड़ी है। अमेरिका और यूरोप में युवाओं के लिए स्पेशलाइज्ड रिहैब सेंटर्स खुल रहे हैं, जहां डिजिटल डिटॉक्स, थेरेपी और समय प्रबंधन सेशन के जरिए बच्चे जीवन का आनंद सीख रहे हैं। भारत में भी ऐसे सेंटर्स की जरूरत है, खासकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए उपयोगी कंटेंट (जैसे एजुकेशनल रील्स) को प्रमोट करते हुए।
सोशल मीडिया का महत्व नकारा नहीं जा सकता—यह दुनिया को मुट्ठी में समेट लाया है। लेकिन बिना लीगल सेफगार्ड्स के, यह युवाओं का दुश्मन बन गया है। समय आ गया है कि भारत एक राष्ट्रीय पॉलिसी बनाए: सख्त उम्र सीमा, पैरेंटल कंसेंट, और एडिक्शन ट्रैकिंग। अन्यथा, हमारी अगली पीढ़ी डिजिटल जाल में फंसकर खो जाएगी।