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Mahila Jagat

कोरोना काल में रिसते घाव

May 05, 2020 06:40 PM

कोरोना काल में रिसते घाव
डॉ. कमलेश कली 

 

आज नीना बहुत व्यथित थी, हालांकि वह बहुत खुश मिजाज तबीयत की है,पर कोरोना काल में न केवल गंभीर, अपितु दार्शनिक भी हो गई है। बाबूजी के जाने के बाद कैसे सब कुछ बदल गया था, उनकी मृत्यु ने उसके ह्रदय में नश्तर से जैसे घाव ही कर दिया हो। आज वह जीवन में संबंधो की अहमियत पर कुछ पढ़ रही थी कि आपसी संबंध कैसे जीवन को खुशहाल बनाते हैं और कैसे अगर संबंध बोझ हो जाएं तो जीवन को जख्मी कर देते हैं। इस छोटे से कथन ने उसके मन को छलनी कर दिया। उसे याद आया कि केवल बाऊजी ही उसे नयनतारा कह कर बुलाते थे, जबकि उसका नाम तो नीना है कागजों में भी और घर में भी। मां बताती कि बाऊजी ने मेरा नाम नयनतारा रखा था पर ना वो अब नयन थे,जिन की मैं तारा थी। हालांकि उसके बाऊजी जी पुराने संस्कारों व पुरानी सोच वाले थे कि लड़कियां पराई अमानत होती है, लड़कियां अपने घर में ही खुश रहे आदि।पर बेटी को प्यार बेइंतिहा करते थे।
परंतु उनके जाने के बाद आपसी संबंध कैसे मोड़ खा गए, रिश्ते कैसे उलझ से गये कि" हम रहे न हम, तुम रहे न तुम" । पिता सारी जमीन जायदाद तथा मां की जिम्मेदारी अपने सुपुत्रो को सौंप गए। बेटे बहुत समझदार है, मां की देखभाल अच्छी तरह से करते हैं। अब हुआ यह कि मां बीमार पड़ गई। मां को देखने जब घर गयी तो मां ने मुझे रोक लिया।
मां की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपनी तीमारदारी के लिए मुझे रोक लिया। हालांकि मुझे अपने घर परिवार को छोड़ वहां रहना आसान नहीं था,पर उनके स्नेह तथा मां की सेवा का मौका मैं हाथ से खोना नहीं चाहती थी,सो हफ्ते के लिए और ठहर गई। फिर कोरोना लाकडाउन की वजह से जो मैं सप्ताह भर के लिए रुकी थी, महीने में बदल गया, और न जाने कब अपने घर जा सकुगी। पर इस दौरान जीवन की हकीकत सामने आई और मतभेद का सिलसिला यू शुरू हुआ कि घाव नासूर बन गया है और रिसता ही रहता है।घर में आये दिन कोई न कोई बात पर बखेड़ा खड़ा हो ही जाता है।
मां का अकेलापन महसूस करती हूं और देखती हूं कि उनको सहारे की जरूरत है तो कहती हूं ठीक ही किया जो उनके पास हूं पर जब भाई भाभी का व्यवहार और रवैया देखती हूं तो दिल भारी हो जाता है, अपने आप को मशरूफ करने की कोशिश करती हूं, पर आंखें छलछला आती है। मां का बेटी से आत्मीयता से बात करना ही उन्हें चुभ जाता है। गाहे-बगाहे भाई कोई भी बात पर मां से या मुझ से कहा सुनी कर लेता है। भाभी को तो सदैव यही लगता है कि मां और बहन मिल कर उनकी बुराई कर रहे हैं। उनके काम में हस्तक्षेप करते हैं और मां मेरे कहने में है। जब कि यह बिल्कुल सच नहीं है, मैं कैसे उनका वहम दूर करूं।सच यह है कि मां केवल अपने आप को आश्वस्त पाकर मन की बात कर लेती है। जब वो मुझे भजन सुनाती है तो मुझे लगता है कि वह जिन्दा हैं, बीते दिनों की बात कर के हल्का महसूस कर लेती है, कोई कथा कहानी शास्त्रो की सुना देती है,, पर भाभी को यही लगता है कि मैं मां को उनके विरुद्ध भड़का रही हूं तथा उनके प्रति अपने मन में ज़हर पाल रही हूं।वो ये क्यूं नहीं समझ पाते कि मां बाऊजी के जाने से पहले ही इतनी व्यथित रहती हैं, अकेलापन उन्हें खाता है,आधी सदी का साथी उन्होंने खोया है और उनके पास बच्चों के सिवा कुछ भी तो नहीं है।
कल मैं ने स्पष्ट ही भाई से कह दिया कि मैं तो रिश्ते निभाने में विश्वास रखती हूं, जैसे हाथ की उंगलियां आपस में जुड़ी है, अलग है पर हथेली से जुड़े होने के कारण उनके सुख-दुख सांझे हैं, जैसे वृक्ष की टहनियां अलग अलग होते हुए भी उनकी पालना जड़ों से होती है, ऐसे ही बच्चो तथा मां के संबंध हैं। पर भाई का यह जवाब मुझे अंदर तक भेद गया कि जब पक्षी अपना घोंसला छोड़ उड़ जाते हैं तो उनकी दिशा और दशा पृथक पृथक हो जाती है। मां के गर्भ से निकलने के बाद हर एक का अपना अस्तित्व होता है तथा अपनी अलग राहें होती है। जुड़ाव व आपसी संबंध मात्र भ्रम है। मैंने उसे समझाया कि बेटा हो या बेटी, मां बाप से रिश्ता वही होता है तथा प्यार भी शर्त रहित होता है। मां ने मुझे पैदा करने में या तुझ बेटे को पैदा करने में जो दर्द सहा, उसमें कितना फर्क था?
मां के सुख-दुख में मैं भागीदार क्यूं नहीं हो सकती? ज़मीन जायदाद से मुझे कुछ नहीं चाहिए पर मां के सुख-दुख में साथ देने में रोकने वाले तुम कौन हो?
मां मुझे बहुत प्यार करती है,बाऊजी के जाने के बाद तो और भी ज़्यादा मोह करती है, पर संस्कारों वश न तो मेरे घर आएगी न ही मुझ से कुछ लेंगी, क्योंकि बेटी तो बेटी ही होती है,और बेटी से लेना नहीं देना होता है। चाहे वह मानती है कि उनकी बेटी उनके बेटों से बढ़ कर है, पढ़ लिखकर अपने पांवों पर खड़ी हैं। मैं अपने आप से पूछती हूं कि मैं क्यूं आयी हूं?क्या मैं अपनी मां की सेवा कर अपना भाग्य नहीं बना सकती? क्या बाऊजी के जाने के बाद यह घर मेरी मां का घर नहीं रहा? शायद ठीक ही कहा होगा कि औरत का अपना कोई घर नहीं होता,जब बच्ची होती है तो पिता के घर रहती है, शादी के बाद पति के घर, और पति के जाने के बाद पुत्र के घर उनके अधीन हो रहती है। मेरी मां के जीवन का ये कटु सत्य मेरे ज़हन में खंजर की तरह उतर गया है और ये घाव ऐसे रिस रहा है मानो सदियों का दुःख इस में भरा पड़ा है।न जाने कब ये लाकडाउन हटेगा, प्रवासी मजदूरों की तरह फंसी मै अपने घर जा पाऊंगी।

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