डॉ कमलेश कली
आज महात्मा गांधी जी के जन्म दिवस पर उनके प्रखर चिंतन , उनके योगदान तथा उनके विचारों की आज भी कितनी जरूरत है, कितनी प्रासांगिकता है,इस पर खूब चिंतन मनन होगा, सेमिनार और गोष्ठियों का आयोजन होगा आदि आदि। गांधी जी ने गीता के अनासक्त योग को जीवन में उतारा। उन्होंने राजनीति को अपना धर्म मान कर जीवन जीने की प्रेरणा सर्व शास्त्र शिरोमणि गीता से ली और सच्चे कर्मयोगी बन कर जीवन के अन्तिम श्वास तक काम करते रहे। उन्होंने अपने कर्तव्यों पर ध्यान दिया न कि अधिकारों पर, जबकि आज हम सभी अधिकारों की बात पहले सोचते और करते हैं। आज कुछ ऐसी दशा है मनुष्य की ,कि हर क्षेत्र में,हर व्यवस्था में और हर बात में अधिकार पाने की कोशिश की जा रही है, अधिकार तो लेकर रहेंगे ,किंतु कर्तव्य की ओर शायद ही किसी का ध्यान हो। अपनी मांगों को लेकर इतने प्रदर्शन होते हैं,पर कर्तव्यों के लिए नहीं। आदमी आदमी पर , वस्तुओं पर इतना हक जमा लेता है, मानों उसने अपने हाथों से रचा हो, आज यही जीवन में बढ़ते क्रोध तनाव और का कारण है। निस्संदेह अधिकार और कर्तव्य अन्योन्याश्रित है,पर कर्तव्य पालन के बिना अधिकार से आज नहीं तो कल हाथ धो बैठते हैं।चार चोर एक गाय कहीं से चुरा लाए। उन्होंने आपस में निर्णय किया कि एक एक दिन बारी बारी से सभी गाय को दुहेंगे भी और चारा भी खिलाएंगे। पहले दिन वाले चोर ने गाय का दूध तो दूह लिया लेकिन चारा नहीं खिलाया सोचा दूसरे दिन वाला चोर तो खिलायेगा ही। ऐसे ही चारों दिन चारों चोरो ने दूध तो निकाला,पर चारा तो गाय को एक ने भी नहीं खिलाया, आखिर गाय सिकुड़ती सिकुड़ती मर गई। कर्तव्य निष्ठा के अभाव में अधिकारों की रक्षा कैसे की जा सकती है। कर्तव्य निष्ठ व्यक्ति यह नहीं पूछता कि उसे क्या मिला,वह यह पूछता है कि उसने क्या किया? कर्तव्य परायणता में महान नैतिक बल छिपा होता है अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध कहावत है "पहले अधिकारी बनो, फिर अधिकार लो"अर्थात फर्स्ट डिसर्व देन डिज़ायर । गांधी जी ने तो कर्तव्य को इस तरह से परिभाषित किया था "बुराई से असहयोग करना मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है" आओ इस गांधी जयंती पर हम भी यह सोचें कि अपने अपने कार्य क्षेत्र पर हम अधिकारों से पहले कर्तव्य की बात करेंगे , कर्तव्यनिष्ठ बनेंगे।