प्रेम करने के अधिकार को क्या मौलिक अधिकारों की तरह संवैधानिक मान्यता दी जा सकती है?
डॉ कमलेश कली
दिल्ली में एक घटना की खबर जिसमें युवक को परिवार वालों ने इस लिए मार डाला क्योंकि वह परिवार की इच्छा के विरुद्ध एक लड़की से प्यार करता था और उससे शादी करना चाहता था। इस प्रकार की पारिवारिक इज्ज़त के नाम से जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में हानरकिलिंग कहते हैं कि घटनाएं यदा-कदा सुर्खियां बटोरती रहती है।कभी जाति के नाम पर,कभी धर्म के नाम पर कभी परिवार की नाक कटने अर्थात इज्ज़त के नाम पर प्यार करने वालों पर ज़ुल्म भी होते हैं और उन्हें मारा जाना भी जारी है। प्यार और हिंसा मानवीय भावनाओं के दो विपरीत छोर है, जहां प्रेम है वहां हिंसा नहीं हो सकती, लेकिन समाज ने प्रेम के रास्ते में भिन्न भिन्न प्रकार के अवरोध खड़े किए हैं।कबीर जी ने तो" ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय"अर्थात प्रेम का अनुभव सारे शास्त्रों के ज्ञान से ज्यादा सत्य है, ये बतलाया है।
वास्तव में ये हत्याएं सीधे ही संविधान प्रदत्त अधिकारों अर्थात जीवन जीने और आजादी के अधिकार का हनन है। पुरुष और स्त्री, दोनों को ही अपने अपने ढंग से जीवन जीने का अधिकार है पर सामाजिक रुढियां, जो कभी टूटती ही नहीं , उनसे आजादी मिलना कठिन लगता है। कहने को आज हम आधुनिक हो गये है, जाति-पाति के बंधन ढीले पड़ते नजर आते हैं, पारिवारिक एकता और सलूक भी बिखर रहे हैं, पर लगता है इतना कुछ बदलने पर भी कुछ नहीं बदला। इस तरह की घटनाएं जब पढ़ने और सुनने में आती है तो लगता है ये तरह-तरह के बंधन जैसे कि जाति और धर्म के बंधन हमें आज भी जकड़े हुए हैं,ना जाने कब टूटेंगे? समाजिक उत्थान के नारे भी कितने खोखले लगते हैं। चारों ओर विसंगतियां फैलीं हुई है। गांव के अनपढ़ पुरातनपंथी ग्रामीण ही नहीं, अपितु शहर के अभिजात्य पढ़ें लिखे, सुसंस्कृत आधुनिक परिवार भी भी दहेज प्रथा की आड़ में ऐसे कुकर्म और घिनौनी हत्या के दोषी पाए गये है।
प्रेम जीवन का आधार है, प्रेम ही जीवन का सार कहा गया है, लेकिन यौन संबंधों पर समाज में आज भी संकुचित सोच प्रचलित है।आये दिन हम बलात्कार और यौन हिंसा की खबरें पढ़ते हैं, सुनते हैं और अपने चारों ओर ऐसी घटनाओं को होते देखते हैं, लेकिन फिर भी उनके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करते। यहां एक प्रश्न उठता है कि जैसे संविधान ने आर्टिकल 21 में सबको राइट टू लाइफ और राइट टू लिबर्टी दिया है क्या उसी तरह राइट टू लव अर्थात प्रेम करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता? क्या संविधान द्वारा प्रेम करने के अधिकार को गारंटी दी जा सकती है? जैसे पीछे सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मान्य किया है, उसी प्रकार प्रेम करने के अधिकार को स्पष्ट रूप से सरंक्षण दे सकता है। इससे पुरुष-सत्तात्मक वर्चस्व समाज में नारी को भी स्वायत्तता मिलेगी और वो भी अपनी भावनाओं के अनुरूप जीवन जी सकेंगी और नारी सशक्तिकरण में यह मील का पत्थर साबित हो सकता है। रामराज्य के संदर्भ में कही पढ़ा था कि "राम राज्य का आशय कल्याण हो, निर्बलतम मानव का त्राण हो, प्रेम युग धर्म मूल का प्राण हो,राम राज्य का आशय कल्याण हो"।